बेअदब
खुद से जब आँख मिलाता हूँ तो ग़ज़ल होती है दिल के हालात बताता हूँ तो ग़ज़ल होती है
रविवार, 27 मई 2012
मुखालिफ़ ख्वाब हो गए, क्या करें
अब दूसरी दवा, क्या करें
मिरी मसाफ़त को डर लगने लगा है
शायद मंजिलों का पता मिलने लगा है
बुधवार, 2 मई 2012
अश्कों से वज़ु कर लो इबादत कर लो यादों से
ये ईश्क का मजहब है यहां जरूरत क्या नमाजों से
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