सोमवार, 11 जनवरी 2016

पहली बार दोहे लिख रहा हूँ:
पंक्षी हवा सुगंध से कबहुँ न पूछिए देश ।
कौन मुलुक से आए हैं जाए कौन से देश ।।
इसक विसक के फेर में जीना भयो दुश्वार।
या तो करिए इसक ही या करिए संसार।।
बिटिया रहे विदेश में देश रहे माँ बाप।
नित दिन जागे रात भर जाने क्या हो आज।।
नयना तो सोवत भया मनवो गयो भुलाई।
जाने अंदर कौन है पल छिन बिसरत नाहीं।।
जग में जाने कौन है जिससे नाता नाहीं।
लख चौरासी में फिरे किस घर नाता नाहीं।।
सजनी सोवें सेज पर साजन ढ़ूढ़े जहान।
घर की छोड़ के मालिकी चाकरी करै बजार।।
कैसा रोग ये इसक का लगै तो छूट न पाय।
भूले पर बिसरै नहीं केतक करो उपाय।।
जाने वाला आएगा आने वाला जाए।
आना जाना नियम है कौन किसे समझाय।।
हिय में तनिक हरस नहीं तन मन फैला रोग।
कैसी कैसी चाकरी करै आजकल लोग।।
वसन नहीं अब तन ढ़के योग बन गया भोग।
लाज स्वयं शरमा गई लागा कैसा रोग।।
सुख दुःख जैसे रात दिन एक गए इक आए।
मनवा क्यूँ घबरात है जो जब आए जाए।।
चिड़िया खुश है डार पे कंदरा में वनराज।
महल अटारी डारी के मानुष काहे नराज।।

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